धमतरी। पुरातन काल से बांस का मानव जीवन में अहम स्थान रहा है बॉस की सहायता से उपयोगी वस्तुओं बनाना आम बात है। बांस के लचीलेपन के कारण इसका उपयोग लंबे समय से घरेलू सामान बनाने में होता आ रहा है। घर में वैवाहिक कार्यक्रम बांस के बने वस्तुओं के बगैर अधूरा है इस लिहाज से देखें तो इसका सामाजिक रीति-रिवाजों में भी अहम स्थान है। समय के साथ हर क्षेत्र में बदलाव हुआ है इससे बांस की उपयोगिता पर भी असर पड़ा है। बंसोड़ परिवार प्लास्टिक की चुनौती के साथ अपने पुस्तैनी कला से जुड़े पेशे को संरक्षित रखने की कोशिश कर रहे हैं।
प्लास्टिक क्रांति के बाद तो लगभग हर वह चीज जो केवल बांस के सहारे ही बनाना मुमकिन थी वह प्लास्टिक के सहारे बनने लगी है। इसके बावजूद रीति-रिवाजों में मूलत: बांस से बनी टोकरी, पर्रा-पर्री (बांस से बना बड़ा व छोटा ढक्कन), बिजना (हाथ से हवा करने वाला पंखा) सूपा, झांपी (ढक्कन वाली बड़ी टोकरी) सहित अन्य सामग्रियों का ही उपयोग होता है।
बढ़ती प्रतिस्पर्धा के दौर में भी इस व्यवसाय से जुड़े कड़रा या बंसोड़ परिवार के लोग अपने पुश्तैनी व्यवसाय को संभाले हुए हैं। इनका कहना है कि अब इस व्यवसाय में पहले जैसा मुनाफा नहीं रहा। खुमान उइके, खूबलाल उइके, ढालसिंग सोरी ने बताया कि समय के साथ काफी बदलाव आ गया है।
जब से प्लास्टिक से बनी हुई वस्तुएं बाजार में बिकने पहुंची हैं, तब से बांस का व्यवसाय काफी प्रभावित हुआ है। इसके अलावा बांस के मूल्य में भी बढ़ोतरी होने का कारोबार पर असर पड़ा है। धमतरी शहर में वन विभाग के डिपो के अलावा चारामा, कांकेर से भी यह पहुंचता है, यहां अपनी सुविधा के अनुसार इसे खरीद लेते हैं।
अच्छी क्वालिटी का जंगली बांस बांदे से यहां आता है। उपलब्ध न होने के कारण प्राइवेट टॉल से 150 रुपये नग में इसे लेना पड़ता है। 50 रुपये भाड़ा को मिलाकर यह 200 रुपये पड़ जाता है। जानकारी के अनुसार शहर में 40 से अधिक बंसोड़ परिवार निवासरत हैं।
घरेलू सामग्री के साथ ही साथ घर की छत, घेरा करने के लिए टट्टा (शीट) का उपयोग बड़े पैमाने पर होता था। ग्रामीण अंचल खासकर वनांचल में अभी भी छुटपुट तौर पर बांस से बने टट्टा (शीट) को देखा जा सकता है। घर की बैठक या अन्य स्थान पर पार्टीशन (घेरा) करने के लिए बांस से जो सीट तैयार की जाती थी, उसे ही टट्टा कहते हैं।
अब इसकी जगह प्लास्टिक, एल्यूमीनियम, स्टील से बनी शीट ने ले ली है, या इसका उपयोग होने लगा है। इसके चलते भी यह अब दिखाई नहीं पड़ता। इसके अलावा बैलगाड़ी में छांव के लिए भी टट्टा का उपयोग किया जाता था, जिससे बैलगाड़ी मैं बैठने वालों को धूप से राहत मिल जाती थी।
बांस के पुश्तैनी व्यवसाय से जुड़े गिरधारी लाल कटारे ने बताया कि वे बचपन से इससे जुड़े हुए हैं। आज की पीढ़ी बांस के सामान बनाकर इसे रोजगार के रूप में अपनाना पसंद नहीं करती। वह इस पुश्तैनी व्यवसाय से दूर होना चाह रही है क्योंकि इसमें पहले जैसी आर्थिक स्थिरता नहीं रही। इस व्यवसाय में आर्थिक रूप से सक्षम हो पाना मुश्किल रो रहा है।