पहली बार कंप्यूटर पर डिजाइन की गई डीएनए वैक्सीन वायरस को करेगी गुमराह
कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने में जुटे वैज्ञानिक जानवरों पर तेजी से परीक्षण कर रहे हैं
इनोवियो फार्मास्यूटिकल्स द्वारा तैयार की गई है वैक्सीन
कोरोना वायरस की वैक्सीन बनाने में जुटे वैज्ञानिक चूहों, बंदरों और दूसरे जानवरों पर तेजी से परीक्षण कर रहे हैं। अमेरिका के कंसास स्थित सेंटर फॉर फॉर्मास्युटिकल्स रिसर्च में पहली बार कंप्यूटर पर डिजाइन की गई डीएनए वैक्सीन का परीक्षण हुआ है। डीएनए वैक्सीन के परीक्षण में सामान्य लोग शामिल हैं। वैज्ञानिक अब ये देख रहे हैं कि वायरस के खिलाफ ये वैक्सीन कैसे कारगर होगी और कितनी सुरक्षित है। भविष्य में कोरोना संक्रमित मरीजों पर इसका कैसे और क्या असर होगा।
डीएनए वैक्सीन का ट्रायल कार्यक्रम देख रहे डॉ. जॉन इरविन बताते हैं कि वैक्सीन का निर्माण जिन तत्वों से होता है, वो पूरी तरह सुरक्षित हो, इसकी पूरी संभावना नहीं है। परीक्षण में शामिल लोगों को इससे खतरा हो सकता है। इनोवियो फार्मास्यूटिकल्स द्वारा तैयार वैक्सीन के पहले चरण के लिए बीस स्लॉट में 90 लोगों का चयन हुआ है, जिनमें चरणबद्ध तरीके से कंप्यूटर इंजीनीयर्ड डीएनए वैक्सीन का परीक्षण शुरू हो गया है। सबसे पहली डोज दो शिक्षक बहनाें विले और एलि लिली को दी गई है।
पहला चरण : कंप्यूटर पर डिजाइन डीएनए लगाया गया
डॉ. एरविन ने विले को वैक्सीन की पहली डोज हाथ के ऊपरी हिस्से में त्वचा में लगाई। इसमें पारदर्शी कंप्यूटर पर बनी डीएनए वैक्सीन थी, जो डीएनए सीक्वेंस था। इसमे जेनेटिक दिशा-निर्देश थे, जिसका काम कोरोना वायरस के स्पाइक प्रोटीन को पहचानना है और वैसा ही स्पाइक प्रोटीन बनाना है। इससे वायरस गुमराह होगा। वायरस वैक्सीन जैसी प्रोटीन की सतह पर हमला बोलेगा तो दवा के चलते वो पूरी तरह निष्क्रिय हो जाएगा।
वैक्सीन से तैयार कोरोना जैसी स्पाइक प्रोटीन से शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता सक्रिय होगी। शरीर उसे वायरस समझकर एंटीबॉडीज बनाएगा। इस स्पाइक प्रोटीन से शरीर को कोई नुकसान नहीं होगा और वायरस के संपर्क में भी नहीं आएगा। वैज्ञानिकों का दावा है कि ये वैक्सीन लगाने के बाद इस तरह के वायरस के हमले पर शरीर उसे पहचान लेगा और उसे खत्म करने की कोशिश शुरू कर देगा।
दूसरा चरण : डीएनए को कोशिकाओं तक पहुंचाने की प्रक्रिया
डीएनए वैक्सीन के परीक्षण में शामिल लोगों को जब इंजेक्शन दिया गया तो कोशिकाओं में उन्हें पहुंचाने के लिए इलेक्ट्रिक ब्रश का प्रयोग किया गया जो दर्दभरा था। इनोवियो के सलाहकार और विस्टार इंस्टीट्यूट के वैक्सीन और इम्युनोथैरेपी के निदेशक प्रो. डेविड बी वेनर का कहना है कि वैक्सीन लगते ही कोशिकाएं खुल जाएंगी और वैक्सीन उनके भीतर घुस जाएगी। पहले चरण का परीक्षण सुरक्षा मानदंडों को ध्यान में रखकर किया जाता है। इसमें किसी तरह का समझौता परीक्षण में शामिल लोगों को नुकसानदायक हो सकता है।
तीसरा चरण : चार सप्ताह बाद सामान्य हालत में घर लौटीं
विले की बहन एलि लिली (46) भी शोध में चौदह दिन बाद शामिल हो गईं। इन्हें भी उसी प्रक्रिया से दवा दी गई। किसी तरह की कोई परेशानी नहीं हुई। घर पहुंचने के बाद उन्हें नाक बहने और घुटन महसूस होने की तकलीफ हुई लेकिन ये पता नहीं चल सका कि ये वैक्सीन का असर है या कुछ और। इंजेक्शन लगने के चार सप्ताह बाद दोनों बहनें घर लौट आईं और दोनों पूरी तरह स्वस्थ हैं।
चौथा चरण : दवा का असर जांचने की कोशिश
डीएनए वैक्सीन के असर का पता करने के लिए वैज्ञानिकों ने शोध जारी रखा है। इनोवियो के गत माह जारी आंकड़ाें में इसकी कोई जानकारी नहीं थी। वैज्ञानिक अब ये पता कर रहे हैं कि पहले चरण में वैक्सीन बेअसर थी या उसने काम किया है। डीएनए वैक्सीन का ट्रायल जिन पर हुआ वो संक्रमित नहीं हैं पर वैज्ञानिकों को उम्म्मीद है कि वे आने वाले समय में इस संक्रमण से बच पाएंगे।
जानवरों में प्रयोग होती है डीएनए वैक्सीन
वैक्सीन वैज्ञानिक डॉ. डेनिस एम किलनमैन का कहना है कि जानवरों जैसे सुअर, कुत्तों और पॉल्ट्री में इस तरह की डीएनए वैकसीन का प्रयोग होता है। माना जाता है कि इसके प्रयोग से रोग प्रतिरोधक क्षमता पर असर पड़ता है। हालांकि ये भी सच है कि अब तक मनुष्यों के लिए इस तरह की कोई भी वैक्सीन नहीं बनी है और न ही बड़े स्तर पर कोई प्रयोग हुआ है।
परीक्षण के लिए चयन एक मुश्किल काम…
डॉ. इरविन बताते हैं कि किसी दवा के परीक्षण के लिए लोगों का चयन एक मुश्किल काम होता है। इसमें जोखिम होता है। परीक्षण में शामिल डॉ. एरविन की बहन हीथर विले का कहना है कि उन्हें परीक्षण में शामिल होने पर लैब आने जाने के लिए करीब सात हजार रुपये भी मिले। वे बताती हैं कि अमेरिका में लोगों को मरते देखा है। मुझे अपने घर-परिवार के लोगों की चिंता सताती है, रात को नींद नहीं आती है। यही सोच परीक्षण में शामिल हुई हूं।
जेनेटिक कोड से सिर्फ तीन घंटे में बनी वैक्सीन
इनोवियो कंपनी के सीनियर वाइस प्रेसिडेंट केट ब्रॉडरिक बताते हैं कि जब दस जनवरी को चीन के शोधकर्ताओं ने कोरोना वायरस का जेनेटिक कोड जारी किया तो टीम ने उस सीक्वेंस को सॉफ्फटवेयर के जरिए कोड किया और फॉर्मूला तैयार कर लिया। एक विशेष प्राकृतिक पदार्थ से तीन घंटे के भीतर शाोधकर्ताओं ने कंप्यूटर इंजीनीयर्ड वैक्सीन तैयार कर ली।
डीएनए वैक्सीन की यही खासियत होती है
नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ एलर्जी एंड इन्फेक्शियस डिसीज के प्रो. वोल्फगैंग लेटनर का कहना है कि डीएनए वैक्सीन की ऐसी ही खासियत होती है। हां कुछ कारण जरूर है जिससे इस बात का संदेह है कि कोरोना में डीएनए वैक्सीन का असर देखने को मिलेगा। हालांकि ये भी सच है कि इस तरह की वैक्सीन आसान होती है और तेजी से इसका निर्माण संभव है।
डीएनए वैक्सीन तकनीक पर कई दशक से काम चल रहा है। कई तरह के संक्रामक रोग जैसे एचआईवी और मलेरिया जैसे रोगों पर अध्ययन हो चुका है लेकिन अभी तक इस तरह की कोई वैक्सीन बाजार में नहीं है।
पारंपरिक प्रथाओं के भी सहारे बचा सकते हैं जान
वैज्ञानिको ने वैष्णवों में सामाजिक दूरी व बार-बार हाथ धोने की आदत को लागू करने की सिफारिश की कोरोना से बचने के लिए दुनियाभर में जहां दवा और वैक्सीन की खोज चल रही है। वहीं, भारतीय वैज्ञानिक पारंपरिक प्रथाओं के जरिए लाखों जिंदगियां बचाने की सिफारिश कर रहे हैं। इनका मानना है कि सैकड़ों साल पुरानी इन प्रथाओं से आधुनिक विज्ञान के तरीकों को जोड़ा जा सकता है।
इंडियन जर्नल ऑफ मेडिकल रिसर्च (आईजेएमआर) में प्रकाशित एक अध्ययन में वैष्णव संप्रदाय की सामाजिक दूरी और बार-बार हाथ धोने जैसी आदतों को अन्य वर्गों तक पहुंचाने की सिफारिश की गई है। लेकिन वैष्णव संप्रदाय सिर्फ एक उदाहरण है। भारत में ऐसी अनेक प्रथाएं हैं, जिनके जरिए उनके समुदाय तक पहुंचा जा सकता है। डब्ल्यूएचओ के पूर्व महामारी रोग निदेशक डॉ. राजेश भाटिया का कहना है कि पारंपरिक पद्धतियों के काफी गहरे प्रभाव दिखाई देते हैं।
जन अभियान की जरूरत
असम के कोकराझार स्थित एमआरएम मेमोरियल अस्पताल के डॉ. देवरक शर्मा का कहना है कि सोशल डिस्टैसिंग, बार बार हाथ धोने की आदत और मास्क लगाने जैसी आदतों का संदेश अध्यात्म, पारंपरिक प्रथा और समाज के वरिष्ठ नेताओं के जरिए पहुंचाया जा सकता है। शिलांग के इंदिरा गांधी रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ हेल्थ एंड मेडिकल साइंसेज के एनॉटमी विशेषज्ञ डॉ. विश्वजीत सैकिया का कहना है कि जिला या स्थानीय स्तर पर जागरुकता लाने के लिए पारंपरिक प्रथाओं और धर्म गुरुओं की मदद लेना चाहिए।
पहले वैष्णव संप्रदाय पर किया सर्वे
गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज के फॉरेसिंक विशेषज्ञ डॉ. रक्तिम प्रतिमा तामुल ने बताया कि प्रथाओं का प्रभाव जानने के लिए 100 वैष्णव अनुयायियों पर हुए अध्ययन में 65 फीसदी ने कहा वे खाना पकाने से पहले स्नान करते हैं। 50 फीसदी घर में प्रवेश से पहले स्नान करते हैं। बार-बार हाथ धोने की आदत पहले से ही है। रसोई घर में प्रवेश से पहले हाथ साफ करते हैं। 65 फीसदी ने बताया, वह स्नान के बाद साफ कपड़े पहनकर ही खाना पकाते हैं। खाना परोसते समय नाक स्कॉर्फ या गमछे से मुंह ढकते हैं।