चंद्र देव आश्विन पूर्णिमा के दिन सोलह कलाओं से युक्त होते हैं। इस दिन चंद्र दर्शन से जीवन के हर दुख स्वत: मिट जाते हैं। सामान्य तौर पर हिन्दू कैलेंडर के माह के अंतिम दिन को पूर्णिमा कहा जाता है। सामान्य तौर पर वर्ष में बारह पूर्णिमा होती हैं। पुरुषोत्तम (मलमास) वाले वर्ष में तेरह पूर्णिमा होती हैं। सबका अपना नाम और महत्त्व है, पर इन सब के बीच शरद पूर्णिमा की अपनी अलग महत्ता है, जो धर्म और स्वास्थ्य दोनों दृष्टिकोण से बेजोड़ है।
भारतीय लोक आख्यानों में पृथ्वी माता के एकमात्र भाई के रूप में चंद्रमा को स्वीकारा गया है, इसीलिए चंदा को ‘मामा’ कहा जाता है। चंद्र देव के आराधन से मन-मस्तिष्क की शांति के साथ-साथ शीतलता, सुख-समृद्धि और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। चंद्र देव शरद पूर्णिमा को संपूर्ण कलाओं से युक्त होते हैं। मानसिक कष्ट से मुक्ति का पुनीत अवसर उपलब्ध कराने वाली शरद पूर्णिमा के दिन चंद्र दर्शन से अंधकार रूपी कष्ट का अंत हो जाता है।
मत्स्य पुराण के अनुसार, चंद्रमा के अभ्युदय के समय चंद्र देव को देखकर ब्रह्मर्षियों ने स्वीकार किया कि चंद्रमा हम लोगों के स्वामी हैं। और उसी समय पितर, ब्रह्मादि देवता, गंधर्व और औषधियों ने चंद्रमा की वैदिक मंत्रों से स्तुति की। इस कारण चंद्रमा का तेज और अधिक बढ़ गया। चंद्रमा को पितरों का अधिपति कहा गया है, जिसका दूसरा नाम ‘सोम’ है और इनके आराधन का सर्वाधिक उपयुक्त योग शरद पूर्णिमा को मिलता है। शरद पूर्णिमा पर चंद्रमा पृथ्वी के सबसे निकट होता है और अंतरिक्ष के समस्त ग्रहों से निकलने वाली सकारात्मक ऊर्जा चंद्र किरणों के माध्यम से पृथ्वी पर आती है, जो कल्याणकारी होती है।
यह बड़े सौभाग्य की बात है कि प्राकृतिक देवों के अंतर्गत चंद्रमा की पूजा अपने देश में आदिकाल से हो रही है और यहां के चंद्र पूजन तीर्थों में हरिद्वार, तिरुमाला पर्वत, महाबलीपुरम, पंढरपुर, कामरूप, भुवनेश्वर, काशी, उज्जैन, मथुरा, गुवाहाटी, गया, अयोध्या, नालन्दा आदि का नाम आता है। शास्त्रों में कहा गया है कि शरद पूर्णिमा की रात्रि में चंद्रमा की चांदनी में अमृत का निवास रहता है, इसीलिए इस दिन उसकी किरणों में अमृत और आरोग्य की प्राप्ति का मणिकांचन योग उपस्थित होता है। यही कारण है कि लोग खाजा-दूध या खीर से भरे पात्र खुले आसमान के नीचे शरद पूर्णिमा की पूरी रात छोड़ देते हैं और दूसरे दिन सुबह-सुबह सबसे पहले उसे ही ग्रहण करते हैं।
ऐसे तो शरद पूर्णिमा का उत्सव पूरे देश में होता है, पर ब्रज मंडल में इसकी विशेष धूम होती है, क्योंकि भगवान श्रीकृष्ण ने इसी शुभ तिथि से रासलीला का श्रीगणेश किया था। इसे ‘कौमुदी महोत्सव’ अथवा ‘रासोत्सव’ भी कहा जाता है। धर्मज्ञों का मानना है कि शरद पूर्णिमा की चांदनी के तेज से मानसिक विकार, नेत्र विकार, चर्म विकार जैसे कितने प्रकार के आधि-व्याधि का प्रभाव समाप्त होने लगता है। आज भी यह परम्परा कहीं-कहीं कायम है और इस दिन पूरी रात सांस्कृतिक लोक उत्सव का आयोजन किया जाता है।
कुल मिलाकर, कितने ही देवताओं के मस्तिष्क का शृंगार बने चंद्रमा का हमारे जीवन में विशेष महत्व है, जो जीवन के विकास तत्व को हर हाल में प्रभावित करता है। चंद्र पूजन-दर्शन का पवित्र-पुनीत दिवस शरद पूर्णिमा ही है, जिससे इहलौकिक और पारलौकिक, दोनों तरह के सुख मिल जाते हैं।