अमेरिका के बाद रेमडेसिविर दवा का भारत में भी होगा ट्रायल, डब्ल्यूएचओ करेगा सहयोग

अमेरिका के बाद भारत में जल्द ही रेमडेसिविर दवा का क्लीनिकल ट्रायल किया जाएगा। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के सहयोग से ये परीक्षण शुरू किए जाएंगे। स्वास्थ्य मंत्रालय के सूत्रों के मुताबिक, सीएसआईआर और आईसीएमआर की टीमें इस पर काम कर रही हैं। डब्ल्यूएचओ से एक हजार रेमडेसिविर की शीशियां भारत को मिली हैं, जिनका इस्तेमाल कुछ राज्यों में होगा।

हालांकि, यह दवा सिर्फ कोरोना के गंभीर मरीजों के लिए दी जाएगी। अमेरिका में हुए परीक्षणों के बाद वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि इस दवा के सेवन से गंभीर कोरोना ग्रस्त मरीजों में तेजी से सुधार आता है। हालांकि यह दवा इबोला वायरस के संक्रमण के लिए बनाई गई थी।
अमेरिका में कोरोना के इलाज में इस्तेमाल होने जा रही एंटीवायरल दवा रेमेडिसिविर अगले सप्ताह से उपलब्ध रहेगी। अमेरिकी संस्था फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन ने इमरजेंसी में इस दवा के प्रयोग को मंजूरी दी थी। दवा बनाने वाली कंपनी गीलीड साइंसेज के प्रबंधन का कहना है कि दवा का निर्माण कंपनी में तेजी से चल रहा है जिससे अधिक से अधिक लोगों को इसे मुहैया कराया जा सके। कंपनी के सीईओ डैन ओ ने बताया कि कंपनी कोरोना की वैक्सीन बनाने पर भी तेजी से काम कर रही है।

भारतीय मूल की वैज्ञानिक अरुणा सुब्रमणियम समेत अन्य ने कहा था कि कोरोना के इलाज में ये दवा प्रभावी है और कुछ मरीज तेजी से ठीक हुए हैं। एफडीए ने अपने आदेश में कहा है कि दवा का प्रयोग नसों के जरिए होगा। कोरोना संक्रमित मरीजों, संदिग्धों और गंभीर हालत में भर्ती बच्चों को ये दवा दी जाएगी। कंपनी ने बताया है कि अब तक दवा का करीब 15 लाख स्टॉक था जो सरकार को दे दिया गया है जिससे एक से दो लाख लोगों का इलाज संभव है।
इबोला के लिए बनी, उसी के मरीज पर ट्रायल में फेल
इबोला के इलाज के लिए रेमडेसिविर दवा तैयार की गई थी लेकिन इबोला के मरीजों पर किए गए परीक्षण में ये फेल हो गई थी। लेकिन कोविड-19 संक्रमण के मरीजों पर सफल परीक्षण से  दुनियाभर में कोरोना का इलाज कर रहे डॉक्टरों में एक उम्मीद जगी है।

विश्व स्वास्थ्य संगठन ने शुरुआती दौर में रेमेडेसिविर के कोरोना मरीज़ों पर हुए परीक्षण को सीमित असर वाला ही बताया था। इसके अलावा यह दवा कुछ महंगी पड़ेगी। इसे बनाने वाली कंपनी गिलीड के मुताबिक, इसका एक डोज करीब 60 हजार रुपये का पड़ेेगा।

अन्य दवाओं के साथ ही प्लाज्मा थेरैपी का करें इस्तेमाकोरोना को मात दे चुके मरीजों का प्लाज्मा थेरैपी की सटीकता की पुष्टि के लिए बड़े पैमाने पर अध्ययन की जरूरत है। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) दिल्ली के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने कहा, डॉक्टर अन्य दवाओं के साथ इसका प्रयोग रोगी की जान बचाने के लिए कर सकते हैं। आईसीएमआर कई संस्थानों को इसको लेकर शोध करने को कह चुका है।

हालांकि कुछ राज्य इस तकनीक को बेहतर मान रहे हैं और दावा कर रहे हैं कि इसके जरिए कुछ गंभीर रोगियों को ठीक होने में मदद मिली है। गुलेरिया का कहना है कि अभी तक कोरोना को लेकर प्लाज्मा ट्रायल की संख्या बहुत कम है और कुछ ही मरीजों में इसका लाभ देखने को मिला है।

ये इलाज के लिए एक रणनीति हो सकती है। इससे रोगी की रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ सकती है। विशेषज्ञों के मुताबिक, संक्रमण से ठीक हो चुके मरीज का प्लाज्मा जब दूसरे मरीज को चढ़ता है तो उसमें मौजूद एंटीबॉडीज संक्रमण से लड़ने की ताकत पैदा करती हैं लेकिन ये कोई ऐसी चीज नहीं है जिससे कोई बड़ा बदलाव हो जाएगा। अभी तक के अध्ययनों में इसे कोई जादुई तरकीब नहीं कहा गया है। उल्लेखनीय है कि शुरुआती उत्साह के बाद प्लाज्मा थेरैपी के नतीजों को लेकर डॅक्टरों ने भी संदेह व्यक्त किए हैं।
200 से 300 लोगों पर अध्ययन की जरूरत
कोरोना के इलाज के लिए कई तरह के तरीकों पर शोध की जरूरत है। इलाज के किसी एक तरीके पर बंधा नहीं जा सकता है। बड़े पैमाने पर यानि 200 से 300 मरीजों को प्लाज्मा थैरेपी देनी होगी और फिर अध्ययन करना होगा तब असली हकीकत पता चलेगी। इसके बाद ही इसके प्रयोग पर रणनीति स्पष्ट हो सकेगी।

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