संक्रमण रोकने के लिए लॉकडाउन का रास्ता अपनाने के उलट स्वीडन ने पाबंदियों में ढील की अलग राह चुनी। संक्रमितों की बढ़ती तादाद के बावजूद वहां बाजार, बार, रेस्तरां, स्कूल से लेकर सार्वजनिक परिवहन तक खुले रखे गए। स्वीडिश सरकार के मुताबिक, पाबंदियों की बजाय लंबे समय तक अपनाए जा सकने वाले बचाव के उपायों से संक्रमण की रोकथाम पर जोर दिया गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि स्वीडन ने हर्ड इम्युनिटी की रणनीति सोच-समझकर अपनाई है।
कोरोना संक्रमण से वैक्सीन का कवच दुनिया में अब तक नहीं है। इसलिए एक करोड़ आबादी वाले स्वीडन ने न्यूनतम खतरे वाले 65 साल से कम आयु वाले स्वस्थ लोगों को कोरोना के संपर्क में आने से रोका नहीं। दूसरी तरफ 65 साल से ज्यादा वालों को घरों में रहने को कहा गया। इससे बाहर रहने वाले 60 फीसदी लोगों में संक्रमण अपने आप थम जाएगा। साथ ही कम उम्र की स्वस्थ आबादी में संक्रमण हुआ तो फ्लू जैसा होगा और गंभीर रोगियों की संख्या कम रहेगी। इतने मरीजों के लिए आईसीयू बेड और वेंटिलेटर पर्याप्त रहेंगे।
स्वीडिश महामारी विशेषज्ञ डॉ एंडर्स टेग्नेल के मुताबिक, कोरोना का आबादी के एक हिस्से पर गंभीर प्रभाव पड़ना तय था। यह भी पता था कि ज्यादातर संक्रमितों में हल्के लक्षण रहेंगे। इससे प्रतिरक्षा बन जाएगी। इसीसे लॉकडाउन नहीं किया गया। कम सख्त सामाजिक दूरी के नियम अपनाए, क्योंकि इन्हें लंबे समय तक लागू किया जा सकता था। नौवीं कक्षा तक के स्कूल खुले रहे, ताकि बच्चों के माता-पिता कामकाज जारी रख सकें। कॉलेज और हाईस्कूल बंद रखे गए, लेकिन रेस्तरां, किराना स्टोर और व्यापारिक जगहें खुली रखी गईं। सामाजिक दूरी के निर्देश दिए गए। 50 से ज्यादा लोगों के इकट्ठा होने और वृद्धाश्रमों में जाने पर रोक है। 65 साल से ज्यादा उम्र वालों को घर रहने के लिए प्रोत्साहित किया। सामान्य बीमारियों के लिए नर्सिंग होम न जाने की सलाह दी गई। बाकी लोग अपना रोजमर्रा का जीवन चलाते रहे।
बार, बाजार, रेस्तरां से लेकर स्कूल और परिवहन तक खुले रखे, लंबे समय तक निभाए जा सकने वाले नियमों पर रहा जोर
थोड़ा नुकसान सहकर ज्यादा बचाया
स्वीडिश मॉडल का नुकसान यह है कि वहां 2,600 लोगों की मौत हो चुकी है। यह पड़ोसी डेनमार्क से छह गुना और नॉर्वे से 13 गुना है। लेकिन स्टॉकहोम की 25 फीसदी आबादी में इम्युनिटी विकसित हो चुकी है। कुछ अस्पतालों के 27 फीसदी स्टाफ में इम्युनिटी पाई गई। इस उपाय से लोगों को बेरोजगारी से बचा लिया गया। साथ ही अस्पतालों में भीड़ भी नहीं हुई। अधिकतर लोगो के प्रतिरोधक क्षमता हासिल कर लेने पर ही बुजुर्गों को बाहर निकलने की अनुमति दी जाएगी। इसके उलट, न्यूयॉर्क में लॉकडाउन से ज्यादा लोगों को मरने से तो बचा लिया गया लेकिन बेरोजगारी बढ़ी, कारोबार ठप हुआ।
कुदरत के हिसाब से ढलने का सिद्धांत
कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार, स्वीडन ने प्राकृतिक आपदा के सामने अनुकूलता का सिद्धांत अपनाया तो अमेरिका ने अदृश्य दुश्मन के खिलाफ युद्ध छेड़ने की बात कही। उनका कहना है कि इंसान इंसान के खिलाफ लड़ सकता है लेकिन कुदरत को हराया नहीं जा सकता। हम सिर्फ उसके हिसाब से खुद को ढालकर ही बच सकते हैं। कोरोना महामारी के मामले में भी स्वीडन ने इस बात को समझा। शोधकर्ताओं के मुताबिक, लॉकडाउन खत्म होने के बाद जीवन को वायरस के हिसाब से ढालने का सवाल आएगा। इसके लिए स्वीडन जैसा ही मॉडल काम आएगा।
जनता का अनुशासन
आंकड़े बताते हैं, स्वीडन में बड़ा तबका स्वेच्छा से सोशल डिस्टेंसिंग अपना रहा है। सार्वजनिक यातायात चालू है, पर इस्तेमाल करने वालों की संख्या बहुत कम है। ईस्टर की छुट्टियों में भी कई लोगों ने यात्राएं नहीं कीं। बड़ी तादाद में लोग घरों से काम कर रहे हैं। सर्वे कराने वाली एक एजेंसी नोवुस का कहना है, महीनेभर पहले 10 में सात स्वीडिश लोग दूसरों से कम से कम एक मीटर की दूरी पर चलते थे। आज ऐसा करने वाले नौ लोग हैं।
अब अमेरिका भी हर्ड इम्युनिटी की ओर
अमेरिकी राज्यों में कई गर्वनरों ने लॉकडाउन खोलने का फैसला लिया है। उनका मानना है, लोग ज्यादा समय तक आर्थिक और मानसिक खामियाजा नहीं भुगत सकते। यानी अब लॉकडाउन खोलकर स्वीडन जैसे तरीकों की ओर ही बढ़ा जाएगा। जाहिर है, इससे संक्रमितों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ प्रतिरक्षा भी व्यापक होगी। लेकिन हर्ड इम्युनिटी के इस कदम की अब ज्यादा बड़ी कीमत चुकानी होगी। संक्रमण के दूसरे दौर में ज्यादा तादाद में लोग अस्पतालों में नजर आ सकते हैं।