कांग्रेस के हारे हुए नेताओं को पार्टी नहीं दे रही ‘भाव’, रायपुर में सीक्रेट मीटिंग

रायपुर. छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) में साल 2018 के चुनाव में भले की कांग्रेस को बंपर बहुमत मिला हो, लेकिन कुछ सीटें कांग्रेस (Congress) ने गंवाई भी है जिनमें बीजेपी के दिग्गज नेता जीतकर आए हैं. इन नेताओं के सामने खड़े प्रत्याशियों को पहले से ये मालूम था कि उनके लिए जीत आसान नहीं है, लेकिन रिस्क लेकर उन्होंने चुनाव लड़ा और जैसी आशंका थी उन्हें हार का सामना करना पड़ा. लेकिन इसके बाद भी उन्हें ये उम्मीद थी कि सरकार बनने के बाद निगम-मंडल में या फिर संगठन के किसी महत्वपूर्ण पद में उन्हें जगह मिलेगी. लेकिन यहां भी सत्ता और संगठन से उन्हें दरकिनार ही कर दिया गया. इसके बाद अब ये हारे हुए नेता अपनी ताकत दिखाने के लिए एकजुट हुए हैं.

राजधानी रायपुर के एक निजी होटल में बैठकर इन नेताओं ने आगे की रणनीति तैयार की है. रायपुर दक्षिण से बीजेपी के कद्दावर नेता बृजमोहन अग्रवाल के खिलाफ चुनाव लड़ने वाले नेता कन्हैया अग्रवाल का कहना है कि वे संगठन को मजबूत करने और अपने क्षेत्र में हुए काम और आने वाली परेशानियों को लेकर चर्चा की.
पीसीसी चीफ का दावा, कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र 

कन्हैया अग्रवाल भले ही ये कह रहे हो कि संगठन को मजबूत करने और क्षेत्र की परेशानी पर चर्चा करने के लिए वे बैठक किए हो, लेकिन सूत्रों का कहना है कि सत्ता और संगठन में इन नेताओं की पूछ-परख कम हो गई है. इन्हें दरकिनार कर दिया गया है, इसलिए ये बैठकें रखी गयी थी. हांलाकि पीसीसी अध्यक्ष मोहन मरकाम का कहना है कि कांग्रेस में आंतरिक लोकतंत्र है. इसलिए हर नेता, कार्यकर्ता अपनी बात कह सकता है और बैठक करने वाले नेताओं को भी अपनी बातें कहने का हक है.

बीजेपी ने कसा तंज
इधर, बीजेपी ने इस मामले में तंज कसा है. बीजेपी नेता गौरीशंकर श्रीवास का कहना है कि संगठन और सरकार के प्रति नेताओं का असंतोष है जो इस तरह की बैठके हुई. उन्होंने कहा कि जिन नेताओं ने संघर्ष किया है उन्हें दरकिनार कर दिया गया और बीजेपी ऐसे नेताओं के लिए सहानुभूति रखती है.

 

congres के हारे हुए नेताओं की इस बैठक से पार्टी के उपर बने दबाव को लेकर संचार विभाग प्रमुख सुशील आनंद शुक्ला का कहना है कि नेता अगर एक साथ सत्ता और संगठन के पास कोई बात रखना चाहते हैं तो ये गलत नहीं है, लेकिन 70 विधायकों वाली पार्टी के उपर किसी तरह का दबाव नहीं है.

चुनाव में भले ही अभी 2 साल का वक्त बाकी है, लेकिन इस बात को कहीं से नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता कि हारे हुए नेताओं का भी अपना जनसमर्थन और वोट बैंक है. ऐसे में बहुमत में आई सरकार पर अभी इसका असर भले ही ना पड़े, लेकिन 2023 करीब आते तक इन नेताओं की नारजगी दूर करना पार्टी के लिए जरूरी होगा.

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