बासमती चावल के GI टैग विवाद की पूरी कहानी, इसके लिए क्यों बेचैन है मध्‍य प्रदेश सरकार

नई दिल्ली. दुनिया भर में अपनी खुशबू और स्‍वाद के लिए मशहूर बासमती चावल (Basmati Rice) इन दिनों अपनी भौगोलिक पहचान को लेकर कानूनी विवाद में उलझा हुआ है. लगभग 12 साल से चल रही यह लड़ाई अब सुप्रीम कोर्ट में पहुंच गई है. यह मामला मध्य प्रदेश (Madhya Pradesh) बनाम सात अन्य राज्यों से जुड़ा हुआ है. सोमवार को इसी सिलसिले में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने नई दिल्ली में केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर से मुलाकात की. उन्होंने बासमती चावल को जियोग्राफिकल इंडिकेशन (Geographical indication) यानी जीआई टैग दिलाने में मदद करने की गुहार लगाई.

शिवराज सरकार का दावा है कि मध्य प्रदेश के कई इलाकों में परंपरागत तरीके से बासमती धान की खेती होती है. इसी आधार पर चौहान ने अपने पिछले कार्यकाल में भौगोलिक संकेतक के लिए चेन्नई स्थित जीआई रजिस्ट्री (GI Registry) में प्रदेश का आवेदन कराया था. बरसों पुराने प्रमाणित दस्तावेज भी जुटाकर दिए थे. लेकिन, एपीडा (एग्रीकल्चर एंड प्रोसेस्ड फूड प्रोडक्ट एक्सपोर्ट डेवलमेंट अथॉरिटी) के विरोध के कारण मान्यता नहीं मिल सकी.

एपीडा (APEDA) ने मद्रास हाईकोर्ट में याचिका दायर की थी. इसमें प्रदेश के पक्ष को खारिज कर दिया गया था. इसके खिलाफ मध्य प्रदेश सरकार ने मई 2020 में सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. एमपी सरकार के मुताबिक, उनके यहां पैदा की जाने वाली बासमती हरियाणा, पंजाब या पश्चिमी उत्तर प्रदेश में उत्पादित चावल से बेहतर है. प्रदेश 59,238 मिट्रिक टन तक बासमती चावल एक्सपोर्ट करता रहा है, लेकिन कभी गुणवत्ता की शिकायत नहीं रही. जीआई टैग को लेकर ऐसे भी अवसर आए जब एमपी के पक्ष में फैसला आया लेकिन एपीडा की अपील और विरोध से मामला अटकता रहा.

इसकी खेती से जुड़े हैं 13 जिलों के 4 लाख किसान

एमपी के 13 जिलों में बासमती धान  की खेती होती है, लेकिन जीआई टैग नहीं होने की वजह से इसे बासमती के तौर पर मान्यता नहीं है. प्रदेश के लगभग 4 लाख किसान इससे जुड़े हुए हैं. शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chouhan) का तर्क है कि किसानों (Farmers) के हित और चावल की गुणवत्ता को देखते हुए मध्य प्रदेश की बासमती को जीआई टैग दे दिया जाए.

टैग न होने पर दिक्कत क्या है?

मध्य प्रदेश के जिन 13 जिलों में इसकी खेती होती है उनमें भिंड, मुरैना, ग्वालियर, दतिया, शिवपुरी, गुना, विदिशा, श्योपुर, रायसेन, सीहोर, होशंगाबाद, नरसिंहपुर और जबलपुर शामिल हैं. टैग न मिलने की वजह से यहां के बासमती धान को वह कीमत नहीं मिल पाती है जो मिलनी चाहिए. फिलहाल, चौहान के आग्रह पर कृषि मंत्री तोमर ने जीआई टैग के लिए मध्य प्रदेश को हर संभव सहायता देने का आश्वासन दिया है.

किस आधार पर खारिज किया गया मध्य प्रदेश का दावा

एपीडा ही नहींं बल्कि जीआई रजिस्ट्री भी मध्य प्रदेश के दावे को खारिज करती रही है. रजिस्ट्री ने अपने आदेश में कहा था कि मध्य प्रदेश जीआई टैग हेतु आवश्यक पारंपरिक बासमती-उत्पादक क्षेत्र संबंधी “लोकप्रिय धारणा की मौलिक आवश्यकता“ (the fundamental requirement of popular perception) को पूरा नहीं करता. बासमती के लिए जीआई टैग गंगा के मैदानी क्षेत्र वाले खास हिस्से के लिए दिया गया है और मध्य प्रदेश इस क्षेत्र में नहीं आता. इसलिए उसे जीआई टैग नहीं दिया जा सकता.

आखिर क्या है जीआई टैग

आईए जानते हैं कि आखिर जीआई टैग किसी फसल या अन्य चीज के लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है. जिसके लिए किसी प्रदेश की सरकार को इस स्तर पर लड़ाई लड़नी पड़ रही है.

दरअसल, जीआई टैग, वस्‍तुओं का भौगोलिक सूचक (पंजीकरण और सरंक्षण) अधिनियम, 1999 (Geographical Indications of goods ‘Registration and Protection’ act, 1999) के तहत दिया जाता है, जो सितंबर 2003 से लागू हुआ था. जो चीजें एक खास मौसम, पर्यावरण या मिट्टी में पैदा होती हैं उनके लिए जियोग्राफिकल इंडिकेशन टैग दिया जाता है. यह एक प्रकार के बौद्धिक संपदा अधिकार के तहत आता है.

दूसरे शब्दों में कहें तो किसी वस्तु, फल या मिठाई को किसी स्थान विशेष का जीआई टैग मिल जाने से इन सभी को उस जगह की स्पेशलिटी मान लिया जाता है. जिससे देशभर में उसे उस जगह के नाम से पहचान मिलती है. जीआई टैग मिलने से उस उत्‍पादित प्रोडक्‍ट के साथ क्‍वालिटी का पैमाना भी जुड़ जाता है. किसानों को इससे फसल के अच्‍छे दाम मिलते हैं.

अब तक 350 से ज्‍यादा चीजों को जीआई टैग (GI Tag) मिल चुका है. वर्ष 2004 में ‘दार्जिलिंग टी’ जीआई टैग प्राप्त करने वाला पहला भारतीय उत्पाद है. भौगोलिक संकेतक का पंजीकरण 10 वर्ष के लिए मान्य होता है.

बासमती के जीआई पर इतना जोर क्यों?

दुनिया भर में बासमती की बहुत मांग है. ऐसे में जिस इलाके के बासमती को जीआई टैग मिला हुआ है वहां के चावल को असली माना जाता है. इससे उत्पाद का बाजार सुरक्षित हो जाता है. भारत में पंजाब,हरियाणा , दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, पश्चिमी उत्तर प्रदेश और जम्मू-कश्मीर के 77 जिलों को बासमती चावल की अलग-अलग किस्मों का जीआई टैग मिला हुआ है.

एक्सपोर्ट कितना है?

भारत ने 2018-19 में 44,14,562 मिट्रिक टन बासमती चावल एक्सपोर्ट (Basmati Rice Export) किया था, जिससे  32,804.19 करोड़ रुपये मिले थे. असली लड़ाई इसी एक्सपोर्ट की है. जिससे राज्य को पैसा मिलता है. भारत से ईरान, सऊदी अरब, इराक, यूएई, यमन, कुवैत, यूएसए, यूके, ओमान और कतर आदि में भारत से यह चावल एक्सपोर्ट होता है.

मध्य प्रदेश को टैग न देने के पीछे तर्क

एपीडा का कहना है कि यदि मध्य प्रदेश को बासमती उत्पादक राज्य माना गया तो यह फैसला उत्तरी राज्यों में बासमती पैदा करने वाले अन्य किसानों को नुकसान पहुंचा सकता है. यदि एमपी भी बासमती उत्पादक राज्यों में शामिल हुआ तो न सिर्फ आपूर्ति बढ़ जाएगी बल्कि बासमती चावल की कीमतें भी गिर जाएंगी और गुणवत्ता पर असर पड़ेगा.

‘पेटेंट’ की कानूनी लड़ाई के दांवपेच

बौद्धिक संपदा अपीलीय बोर्ड (IPAB-Intellectual Property Appellate Board) चेन्नई ने मध्य प्रदेश के दावे को पेंडिंग रखते हुए फरवरी 2016 में आदेश दिया था कि वर्तमान में जिन सात राज्यों को बासमती चावल उत्पादक माना गया है, उन्हें मिलने वाली सुविधाएं दी जाएं. जबकि, दिसंबर 2013 में भौगोलिक संकेतक रजिस्ट्रार (चेन्नई) ने एमपी के पक्ष में निर्णय दिया था.

तब एपी सरकार ने 1908 व 1913 के ब्रिटिश गजेटियर पेश किए थे, जिसमें बताया था कि गंगा और यमुना के इलाकों के अलावा मध्य प्रदेश के भी कुछ जगहों में भी बासमती पैदा होता रहा है. एपीडा ने इसके खिलाफ आईपीएबी में अपील कर दी थी. तब एपीडा ने कहा था कि जम्मू एंड कश्मीर, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, यूपी, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली के अलावा कहीं भी बासमती चावल का उत्पादन नहीं होता.

पंजाब राइस मिलर्स एसोसिएशन ने भी एपीडा को पत्र लिखकर एमपी में बासमती धान की खेती पर रोक लगाने की मांग की थी. जिसमें हवाला दिया गया था कि मध्य प्रदेश में बासमती की पैदावार लगातार बढ़ने से पंजाब के किसानों को नुकसान हो रहा है. हालांकि इस बारे में जब हमने एपीडा के सदस्य और बीजेपी से राज्यसभा सांसद विजय पाल तोमर से बातचीत की तो उन्होंने कहा, ‘बात करके कल बताउंगा.’

कहां से शुरू हुई बासमती को अपनाने की जंग?

नवंबर, 2008 में एपीडा ने बासमती को जीआई पहचान देकर उसे सुरक्षित करने की पहल की थी. जिसमें मध्य प्रदेश को अनदेखा कर दिया गया था. इसके बाद से ही मध्य प्रदेश जीआई टैग पाने की लड़ाई लड़ रहा है.

>> सितंबर 2010 को मध्य प्रदेश ने एपीडा के आवेदन के खिलाफ जवाब दाखिल किया. साथ ही अपने 13 जिलों के लिए जीआई टैग की मांग की.

>> 31 दिसंबर, 2013 वास्तविक बासमती पैदा करने वाले क्षेत्रों के स्पष्ट सीमांकन की जरूरत संबंधी रजिस्ट्रार ऑफ जियोग्राफिकल इंडीकेशंस के बयान पर एपीडा ने असंतुष्टि जाहिर की.

>> 12 फरवरी, 2014 एपीडा ने इंटलेक्चुएल प्रॉपर्टी अपीलीएट बोर्ड के समक्ष 31 दिसंबर, 2013  को रजिस्ट्रार ऑफ जियोग्राफिकल इंडीकेशन्स की ओर से जारी किए गए आदेश के खिलाफ अपील की.

>> 5 फरवरी, 2016 आईपीएबी ने जियोग्राफिकल इंडीकेशन्स रजिस्ट्रार को एमपी के आवेदन पर दोबारा विचार करने को कहा.

>> 5 मार्च 2018 जियोग्राफिकल इंडीकेशन्स रजिस्ट्री ने बासमती पैदा करने वाले भौगोलिक दायरे के सीमांकन से बाहर किसी राज्य को बासमती उत्पादक राज्य मानने से इनकार कर दिया. यानी एमपी को बासमती उत्पादक राज्य नहीं माना जा रहा था.

एमपी के कृषि मंत्री कमल पटेल ने कहा, कोई न कोई लॉबी है जो नहीं चाहती कि एमपी के किसान बासमती पैदा करके उसे एक्सपोर्ट करें. चेन्नई में जीआई रजिस्ट्री है. इसलिए एक मामला मद्रास हाईकोर्ट में भी चल रहा था. मध्य प्रदेश के बासमती को जीआई टैग देने की मांग को लेकर दायर याचिका को मद्रास हाईकोर्ट ने इसी फरवरी के अंत में खारिज कर दिया था. इसके खिलाफ हमने मई के अंतिम सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट में अपील की है.

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